(Minghui.org) बचपन से ही मुझे गहरा अफ़सोस और खुद को दोष देने की आदत रही है। इस तरह की नकारात्मक सोच ने मुझे कष्टों से गुज़रते समय और भी ज़्यादा परेशान किया है। साधना के दौरान कष्टों का सामना करते समय यह कभी-कभी मेरे अंतर्मन के भीतर झाँकने की प्रक्रिया में भी घुल-मिल जाती थी, और मैं उसे महसूस नहीं कर पाता था। मैं इस समय दो स्थितियों से वाकिफ़ हूँ।
पहला मामला यह होता है कि जब मैं किसी कठिनाई से गुज़रता हूँ तो सबसे पहले मानवीय धारणाएँ उभर आती हैं—“ऐसी बात क्यों हुई? क्या मैंने कोई गलती की? अगर मैंने पहले ही इन आसक्तियों पर ध्यान दिया होता तो यह घटना घटित न होती।” इसके बाद पश्चाताप और स्व: भर्त्सना की नकारात्मक भावनाएँ उमड़ने लगती हैं, जो मुझे इतना दबाव में डाल देती हैं कि सीने में भारीपन महसूस होने लगता है, क्योंकि नकारात्मक भावनाएँ भी सचेत जीव होती हैं।
क्या यह अंतर्मन के भीतर झांकना कहलाएगा? नहीं। मैं खुद को दोष दे रहा था क्योंकि मैं किसी कठिनाई से गुजरने का कष्ट सहना नहीं चाहता था, और मैं नहीं चाहता था कि एक निश्चित परिणाम फिर से घटित हो। ऐसा इसलिए नहीं था क्योंकि मैंने वास्तव में अपने आसक्तियों की पहचान करने की प्रक्रिया पर ध्यान दिया था और यह परखा था कि मैंने स्वयं को कितना सुधारा है। मानवीय धारणाएँ स्वार्थी होती हैं और उनसे जो संचित होता है, वह केवल दुःख से बचने की कोशिश के अनुभव मात्र होते हैं।
मैंने धीरे-धीरे इस नकारात्मक सोच को पहचाना और उसे बदलने की कोशिश की। परीक्षा पास करने के लिए, मैं सबसे पहले जो कुछ हुआ है उसे अपने दिल की गहराइयों से स्वीकार करूँगा। मैं पहले सोचूँगा, "एक अभ्यासी के आदर्शों के अनुसार मुझे इस मामले को कैसे देखना चाहिए, और इसे और अधिक फ़ा के अनुरूप बनाने और अधिक लोगों को बचाने में मदद करने के लिए क्या किया जा सकता है? क्या यह मामला इसलिए हुआ क्योंकि मुझे कुछ सुधारना है? मुझे किस आसक्ति से छुटकारा पाना है: प्रसिद्धि, लाभ की चाह, या भावना; या यह ईर्ष्या, दिखावे, या कट्टरता के कारण है?"
जब मैं किसी विपत्ति से गुज़र रहा हूँ, तो मुझे दयालु होना चाहिए। अगर मुझे कुछ सहना है, तो मैं उसे सहन करूँगा। अगर मुझे कुछ खोना है, तो वह खो जाएगा। आसक्तियों का पता लगने के बाद, मैं अपने व्यवहार को नियंत्रित करूँगा और स्व: साधना करूँगा। मैं अब इस सोच में नहीं उलझूँगा कि संघर्षों से कैसे बचा जाए। मैं जानता हूँ कि हम सभी के जीवन व्यवस्थित हैं। विपत्तियाँ और परीक्षाएँ संयोगवश नहीं आतीं, और उन्हें मानवीय धारणाओं द्वारा नियंत्रित नहीं किया जा सकता। यदि किसी अभ्यासी का नैतिकगुण संतुलित नहीं है, तो परीक्षाएँ और विपत्तियाँ अवश्य आएंगी। कोई पछतावा या स्वयं को दोष नहीं होना चाहिए। हम केवल दृढ़ता से साधना करते रह सकते हैं और अपने मार्ग के शेष भाग में बेहतर कर सकते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि हमारे नैतिकगुण में अभी भी सुधार की आवश्यकता है और इसलिए अभी भी नई विपत्तियाँ और परीक्षाएँ आती रहेंगी।
दूसरा मामला यह है कि जब मैं अपने परिवार के किसी सदस्य को कष्ट सहते देखता हूँ, तो मेरे मन में एक नकारात्मक विचार आता है, "क्या मेरे परिवार के सदस्य के साथ ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि मैंने अच्छी तरह से साधना नहीं की?" जब मैं अपने परिवार के सदस्यों को कष्ट सहते देखता हूँ, तो मैं फिर से स्वयं को दोष में डूब जाता हूँ और नकारात्मकता से व्याकुल हो जाता हूँ। अपने अंतर्मन के भीतर झाँकने पर, मुझे एहसास हुआ कि मेरा आधार यह है कि मैं आशा करता हूँ कि मेरे परिवार के सदस्य सुख से रहेंगे और उन्हें कष्ट नहीं सहना पड़ेगा। यह अभी भी एक स्वार्थी विचार है। क्या मैंने साधना इसलिए की ताकि मेरे परिवार के सदस्य सुख से रह सकें? इससे मेरी साधना पर भारी मानसिक बोझ पड़ेगा।
अब मैं समझता हूँ कि जब मेरे परिवार के सदस्य कष्टों से गुज़रते हैं, तो मुझे उनकी समस्याओं के समाधान के लिए अपने भीतर कारण नहीं ढूँढ़ना चाहिए, क्योंकि यह मानवीय धारणाओं का प्रयोग है। कर्म के प्रतिशोध चक्र में, जो कुछ भी घटित होता है वह अपरिहार्य है। मेरे परिवार के सदस्यों को भी अपने कर्मों का नाश करना होगा, और उनके जीवन के अपने पूर्वनिर्धारित मार्ग हैं। जन्म, बुढ़ापा, रोग और मृत्यु, ये सभी पूर्वनिर्धारित हैं। कष्टों के दौरान, जब हम संघर्षों का सामना करते हैं और अपने परिवार के सदस्यों के साथ व्यवहार करते हैं, तो हम केवल दाफ़ा के सत्य, करुणा और सहनशीलता के मानकों का पालन कर सकते हैं। हमें हस्तक्षेप को समाप्त करने और इन तीनों चीजों को अच्छी तरह से करने का भी भरसक प्रयास करना चाहिए। हमें अपने परिवार के सदस्यों में दिखाई देने वाली समस्याओं के लिए बिना शर्त अपने अंतर्मन के भीतर देखना चाहिए और दूसरों को बदलने की कोशिश करने के बजाय, स्वयं को विकसित करना चाहिए। हमें इस प्रक्रिया के परिणाम पर ज़ोर नहीं देना चाहिए। हमें प्रकृति को अपना काम करने देना चाहिए।
हालाँकि मैं सैद्धांतिक रूप से इन सिद्धांतों को समझता हूँ, लेकिन वास्तविक साधना के दौरान मैं अक्सर लड़खड़ा जाता हूँ। मैं एक गैर-अभ्यासी मित्र से बातचीत कर रहा था, और उसने अपने जीवन की कुछ समस्याओं का ज़िक्र किया। उसने मुस्कुराते हुए मुझसे कहा, "जानते हो, मैंने सुना है कि जो लोग खुद को बदलने की कोशिश करते हैं वे दिव्य जीव हैं, और जो दूसरों को बदलने की कोशिश करते हैं वे पागल हैं।" यह कहकर वह ज़ोर से हँस पड़ी। मैं जानता था कि दयालु मास्टरजी मुझे समय पर बिना किसी शर्त के साधना करने की याद दिला रहे थे। हर व्यक्ति का जीवन एक निश्चित मार्ग पर चलता है जिसे देवताओंने उसके लिए व्यवस्थित किया है। जब एक अभ्यासी किसी व्यक्ति को बचाता है, तो वह उस जीव के आंतरिक चरित्र को बचाता है, बजाय इसके कि वह व्यक्ति मानव संसार में एक अच्छा जीवन जी सके।
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