(Minghui.org) वर्षों की साधना के बाद, मैंने सोचा कि मैं भावनाओं से अपना लगाव छोड़ दूँगी। पारिवारिक स्नेह को खत्म करना सबसे मुश्किल होता है, लेकिन मुझे लगा कि मैं इससे पूरी तरह अलग हो चुकी हूँ।

जब मेरे पिता का निधन हुआ, तो मुझे पता था कि मृत्यु जीवन चक्र का एक अनिवार्य हिस्सा है, इसलिए मुझे ज़्यादा दुख नहीं हुआ। मुझे थोड़ा अफ़सोस ज़रूर हुआ कि मैंने अच्छी तरह से साधना नहीं की और मैं उन्हें फालुन दाफा का अभ्यास करने के लिए मार्गदर्शन नहीं दे पाई। इसके अलावा, मैंने इस बारे में ज़्यादा नहीं सोचा, और मैं खुद को भावनात्मक आसक्तियों से मुक्त होने में काफ़ी अच्छा मानती थी।

मेरे पिता के निधन के छह महीने बाद, मेरे पति, जो एक अभ्यासी थे, बीमारी के कर्म के कारण चल बसे। मैं दुःख से इतनी अभिभूत थी कि मुझे मानो लकवा मार गया था। मैं रोज़ रोती थी, फ़ा का अध्ययन करते समय ध्यान केंद्रित नहीं कर पाती थी, और मुश्किल से सो पाती थी। अपने दर्द और लालसा को कम करने के लिए मैं अपने मोबाइल फ़ोन पर बहुत समय बिताती थी।

मैं बाहर नहीं जाना चाहती थी, क्योंकि उनकी परछाईं हर जगह मेरे पीछे-पीछे आती थी - नाले के पास और जंगल में जहां हम साथ मिलकर फा का अध्ययन करते थे, चांदनी रात में दाफा सामग्री वितरित करते समय, और सड़कों और गलियों में जहां वे मुझे अपनी मोटरसाइकिल या कार में लोगों को उत्पीड़न के बारे में सच्चाई समझाने के लिए ले जाते थे।

ये सब कल की ही बात लगती है। अब मैं अकेली सड़कों पर चलती हूँ, जहाँ हर गाड़ी किसी और की है, और कोई भी ड्राइवर मेरा पति नहीं है। जब मैं ये सोचती हूँ तो मेरी आँखें भर आती हैं।

शोक की अवधि के दौरान मैं घर पर ही रही और बाहर जाने से परहेज़ किया। मैं अक्सर उन दिनों के बारे में सोचती थी जब हम साथ मिलकर फा का अध्ययन करते थे, अभ्यास करते थे और सत्य का स्पष्टीकरण करते थे। उनकी वजह से, हमारा घर दाफा सत्य-स्पष्टीकरण सामग्री के उत्पादन का स्थल बन गया था, और उनके निधन के बाद अब वह स्थल भी नहीं रहा। इससे मेरा दिल टूट जाता है और मुझे बहुत दुःख होता है।

मुझे पता था कि मेरी साधना की स्थिति ठीक नहीं है, क्योंकि एक अभ्यासी को भावनाओं को अपने ऊपर हावी नहीं होने देना चाहिए। मैंने सद्विचारों को आगे बढ़ाने की कोशिश की, मैंने फा का अध्ययन किया, और खुद को सुधारने के लिए अभ्यास किए, लेकिन परिणाम बहुत कम थे। बहुत स्व: निरिक्षण के बाद, मैंने उन आसक्तियों की तलाश की जिन्हें मैंने दूर नहीं किया था। मुझे निर्भरता, मुसीबत का डर, नाराज़गी, और कुछ अन्य आसक्तियाँ मिलीं। मेरे पास अभी भी खुद को सुधारने का अवसर था, लेकिन मेरे पति पहले ही चले गए थे।

मैंने एक बार फिर ज़ुआन फ़ालुन को याद करने का फ़ैसला किया । पढ़ते हुए, एक दिन मेरी नज़र इस पैराग्राफ पर पड़ी। मास्टरजी ने कहा,

"साधना कष्टों के बीच से होकर गुज़रनी चाहिए ताकि यह परखा जा सके कि क्या आप विभिन्न प्रकार की भावनाये और मानवीय इच्छाओं से अलग हो सकते हैं और उनकी परवाह कम कर सकते हैं। यदि आप इन चीज़ों से आसक्त हैं, तो आप साधना में सफल नहीं होंगे।" (व्याख्यान चार, ज़ुआन फालुन )

मुझे शर्मिंदगी महसूस हुई कि इतने सालों की साधना के बाद भी, मैं भावनात्मक लगाव से मुक्त नहीं हो पाई थी, और उन्हें छोड़ना अब भी मुश्किल था। उन्हें छोड़ना इतना मुश्किल क्यों था?

मैंने खुद से पूछा है, "मेरे पति ने जेल में लगभग एक दशक तक उत्पीड़न सहा और पहरेदारों ने उन्हें ' रूपांतरित ' नहीं किया। उनका दाफ़ा में दृढ़ विश्वास था। मुझे लगा कि यह सराहनीय है। जब माहौल बेहतर हो गया, तो वे रोग कर्म से क्यों मर गए? क्या कारण था? एक अभ्यासी और उनकी पत्नी होने के नाते, क्या मैं ज़िम्मेदार नहीं थी?"

मैं इन सवालों पर बहुत परेशान थी, लेकिमैं न कोई स्पष्ट जवाब नहीं मिला, और मेरा दिल टूट गया! मैंने अच्छी तरह से साधना नहीं की थी और मैं अपने पति को फ़ा सिद्धांतों की समझ दिलाने में अपने स्तर पर मदद नहीं कर सकती थी। इस विचार ने मुझे बहुत पीड़ा पहुँचाई।

जब तक मैंने ज़ुआन फालुन का अधिकांश भाग याद कर लिया, तब तक मैंने कई आसक्तियाँ त्याग दी थीं। मेरी अधीरता बहुत कम हो गई, मेरी मुख्य चेतना प्रबल हो गई, मेरी सहनशक्ति में सुधार हुआ, और कुछ खाद्य पदार्थों की मेरी आसक्तियाँ समाप्त हो गई। जब अभ्यासियों के बीच मतभेद उत्पन्न होते, तो मैं सतही सही या गलत पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय, फा सिद्धांतों के आधार पर उनका समाधान कर पाती। फा को याद करना वास्तव में लाभदायक था।

एक दिन मुझे एहसास हुआ कि मेरी आसक्तियाँ और पीड़ा की जड़ स्वार्थ था! मेरे पति के देहांत के बाद, मेरे पास कोई नहीं था जिसके साथ मैं फ़ा का अध्ययन कर सकूँ या अभ्यास कर सकूँ, कोई नहीं था जो मुझे सत्य का स्पष्टीकरण देने के लिए साथ दे, और अब मेरे पास कोई नहीं था जिसके साथ मैं अपना जीवन साझा कर सकूँ।

मैं किसी और के साथ ज़िंदगी जीने की आदी हो गई थी। बस "मैं, मैं, मैं!" मैं परेशान थी क्योंकि कोई मेरा साथ नहीं दे सकता था, मैं अकेला महसूस करती थी, और इसीलिए मुझे इतना दुःख था!

स्वार्थ की कितनी गहरी भावना थी! मुझे तो बस अपनी भावनाओं की परवाह थी! किसी की कमी महसूस करना और स्वार्थी होना, दोनों एक-दूसरे से जुड़े हुए थे। मैंने पहले यह बात क्यों नहीं सोची? मैं मास्टरजी द्वारा मुझे प्रज्ञाप्राप्ति कराने के लिए कृतज्ञ थी और इस स्वार्थ को मिटाना चाहता थी!

फा का अध्ययन और स्मरण करने से, मैंने विभिन्न स्तरों पर फा की अलग-अलग समझ हासिल की है। अब मेरे मन में उन लोगों के प्रति ज़्यादा भावनाएँ नहीं हैं जिन्हें मैं पहले नापसंद करती थी। मैं उन अभ्यासियों को नापसंद नहीं करती जो अलग राय रखते हैं या लगातार बोलते रहते हैं। मैं अब ज्यादा बोलती या बुदबुदाती नहीं हूँ। मैं सुनती हूँ और अभ्यासी के बोलने का इंतज़ार करती हूँ, फिर शांति से अपने विचार साझा करती हूँ। जब मेरे विचार साथी अभ्यासियों को पसंद नहीं आते, तो मैं घर जाती हूँ, उनके लिए सद्विचार भेजती हूँ, और मास्टरजी से उनके सद्विचारों को मज़बूत करने की प्रार्थना करती हूँ।

खाने-पीने, कौन अच्छा है या बुरा, और कौन अच्छी तरह से साधना करता है या खराब, जैसी चीज़ों की बात करें तो ये अब मेरे लिए महत्वहीन हैं और मेरे दिल में कोई हलचल नहीं पैदा करते। मैं बस यही तीन चीज़ें अच्छी तरह करना चाहती हूँ, और मैं मास्टरजी की सुरक्षा और प्रज्ञाप्राप्ति कराने के लिए उनकी आभारी हूँ।

जब मुझे इस बात की गहरी समझ हुई कि मैं इस समय इस धरती पर क्यों आई हूँ और मैंने कितना समय बर्बाद किया, तो मेरे दिल में जो दर्द और पछतावा था, वह शब्दों से परे था! साथी अभ्यासियों, मुझे एक चेतावनी के उदाहरण के रूप में लें और जल्दी से सभी आसक्तियों को त्याग दें।

लोगों को जागृत करना सबसे पहले आना चाहिए। मैं तीनों कार्य अच्छी तरह से करना चाहती हूँ और अपनी प्रागैतिहासिक प्रतिज्ञाओं को पूरा करना चाहती हूँ, मास्टरजी द्वारा अपने अपार त्याग के माध्यम से दिए गए समय का सदुपयोग करना चाहती हूँ, और मास्टरजी की करुणामय मुक्ति के अनुरूप जीवन जीना चाहती हूँ!

यह मेरी वर्तमान और सीमित समझ है। कृपया बताएँ कि क्या मैंने जो कुछ कहा है वह फ़ा के अनुरूप नहीं है।

हेशी